देशः सनातन धर्म को पुनः स्थापित एवं प्रतिष्ठित करने का श्रेय आद्य गुरु शंकराचार्य को दिया जाता है। एक तरफ उन्होने अद्वैत चिन्तन को पुनर्जीवित करके सनातन हिन्दू धर्म के दार्शनिक आधार को सुदृढ़ किया, तो दूसरी तरफ उन्होने जनसामान्य में प्रचलित मूर्तिपूजा का औचित्य सिद्ध करने का भी प्रयास किया। अपनी असाधारण बौद्धिकता से प्रकांड विद्वत समाज को हतप्रभ करने वाले इस युवा तपोनिष्ठ संत ने भारत को एक सूत्र में बांधने का जो अद्वितीय कार्य किया उसका अन्य कोई उदाहरण आज तक नहीं मिलता। आद्य शंकराचार्य सनातन धर्म यात्रा के ऐसे पथिक थे जिन्होंने हजारों मील की पदयात्रा की और जहां गये वहां हिन्दू दर्शन और धर्म को ह्रदयों में अंकित कर दिया। सही मायनों में भारतवर्ष के मानचित्र के वह पहले चितेरे थे जिन्होंने पूर्व से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण तक देश की सीमाओं का अंकन किया। वर्तमान भारत का जो नक्शा हम आज देखते हैं वस्तुतः उसका रेखांकन आद्य शंकराचार्य ने सदियों पूर्व किया था। चारों दिशाओं में चार पीठों की स्थापना कर उन्होंने हिन्दू धर्मावलंबियों को धर्मयात्रा के जहां नये स्थल दिये वहीं हिन्दू धर्म को नयी ऊर्जा, नया प्रकाश दिया।
आद्य शंकराचार्य का दर्शन, कार्य, शिक्षा जहां समस्त भारत में व्याप्त है। वहीं उनके जीवन को लेकर प्रामाणिक तथ्य नहीं मिलते हैं। आद्य शंकराचार्य के जीवन का वृतान्त जिन ग्रंथों में उपलब्ध है उनमें आनंद गिरी कृत ‘शंकर-दिग्विजय’ एवं माधवाचार्य कृत ‘शंकरजय’ ग्रंथ उल्लेखनीय हैं। आदि शंकराचार्य के आभिर्भाव को लेकर भारतीय व पाश्चात्य विद्वानों में मतभेद बना रहा है। अधिकांश के मत से शंकराचार्य 8 वीं या 9 वीं सदी में उत्पन्न हुए थे। अन्य मत से ईसा पूर्व 5 वीं सदी से शंकराचार्य के आभिर्भाव का समय शुरू माना जाता है। विभिन्न ऐतिहासिक तथ्यों से यह सिद्ध होता है कि शंकराचार्य, सुरेश्वर, कुमारिल, विद्यानंद व प्रभाचंद्र समसामयिक थे। इन सभी ने अपने ग्रंथों में एक दूसरे का उल्लेख किया है। आद्य शंकराचार्य का जीवनकाल 32 वर्ष होने का विवरण विभिन्न ग्रंथों के माध्यम से मिलता है। अल्प जीवन काल में उनके द्वारा आश्चर्यजनक ढंग से विपुल संख्या में ग्रंथ रचना की गयी। यह संख्या लगभग 400 तक है। इनमें उल्लेखनीय ग्रंथ-अज्ञान बोधिनी, अद्वैत पंचपदी, अपराध क्षमा स्तोत्र, आनंद लहरी, आत्मबोध, काशीपंचक, कृष्ण विजय, गंगाष्टक, तारा रहस्य, तंत्र सार, ज्ञान गीता, कनकधारा स्तोत्र, लक्ष्मी नृसिंह स्तोत्र, शिवानंद लहरी, विवेक चूड़ामणि, वेदांतसार, हस्तामलक आदि सम्मिलित हैं।
आदि शंकराचार्य का दर्शन ‘अद्वैतवाद’ या ‘मायावाद’ से प्रसिद्ध है। शंकराचार्य ‘ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या, जीव ब्रह्म से अभिन्न है’ के मत समर्थक थे। शंकराचार्य का ‘एकोब्रह्म, द्वितीयो नास्ति’ मत था। सृष्टि से पहले परमब्रह्म विद्यमान थे। ब्रह्म सत और सृष्टि जगत असत् है। शंकराचार्य के मत से ब्रह्म निर्गुण, निष्क्रिय, सत-असत, कार्य-कारण से अलग इंद्रियातीत है। ब्रह्म आंखों से नहीं देखा जा सकता, मन से नहीं जाना जा सकता, वह ज्ञाता नहीं है और न ज्ञेय ही है, ज्ञान और क्रिया के भी अतीत है। माया के कारण जीव ‘अहं ब्रह्म’ का ज्ञान नहीं कर पाता। आत्मा विशुद्ध ज्ञान स्वरूप निष्क्रिय और अनंत है, जीव को यह ज्ञान नहीं रहता। जीव का ज्ञान देह तक ही सीमित रहता है, इस कारण जीव को सुख दुःख का भोग करना होता है। कल्प के अंत में जगत् के प्रलय के समय यह विचित्र विश्व ब्रह्मांड माया में विलीन हो जाता है। जीव के किये कर्मों का प्रायश्चित होने तक उसका कर्मानुसार जन्म होता रहता है। इस प्रकार माया से बंधे जीव अनंत संसार प्रवाह में भ्रमण करते हैं। आदि शंकराचार्य जीव की मुक्ति का विधान ‘वेद’ में बताते हैं। ‘तत्वमसि’ महावाक्य से जब जीव व ब्रह्म का भिन्न ज्ञान हट जाता है। तब जीव मुक्ति लाभ कर अपने स्वरूप को प्राप्त होता है। आद्य शंकराचार्य द्वारा केदारनाथ में समाधि ग्रहण ली गई थी। आदि शंकराचार्य का मायावी जगत को यह संदेश आज भी गूंजता है-‘भज गोविन्दं भज गोविन्दं, गोविन्दं भज गूढ़मते।’