रामनगर (महानाद) : सनातन हिन्दू धर्म में ब्रह्मा के सातवें पुत्र के रूप में पूज्य हैं भगवान विश्वकर्मा। उन्हें सृष्टि के निर्माण की रूपरेखा व आकार देने वाले शिल्पकार ,ब्रह्मांड के प्रथम इंजीनियर , यंत्रों का भी देवता माना जाता है। धर्मशास्त्रों में उल्लेख मिलता है कि पिता ब्रह्मा जी की आज्ञा के अनुसार विश्वकर्मा को इंद्रपुरी, भगवान कृष्ण की द्वारिकानगरी , सुदामापुरी, इंद्रप्रस्थ, हस्तिनापुर, स्वर्गलोक , लंकानगरी, पुष्पक विमान , शिव के त्रिशूल, यमराज के कालदण्ड और विष्णुचक्र साहित अनेक देवताओं के राजमहल व राजधानियों का निर्माण का कार्य सौंपा गया था। जिसे अद्भुत कुशलता से विश्वकर्मा ने सम्पन्न किया।
विष्णुपुराण के पहले अंश में विश्वकर्मा को देवताओं का वर्धकी (बढ़ई) होने का वर्णन मिलता है। एक स्थान पर तो यहाँ तक उल्लेख मिलता है कि जल पर सहज रूप से चल सकने की खड़ाऊँ बनाने की सामर्थ्य उनमें मौजूद थी। वे कंबासूत्र, जलपात्र, पुस्तक और ज्ञानसूत्र धारक देवता थे।
उनकी उत्पत्ति के विषय में एक प्रसंग मिलता है कि सृष्टि के आरंभ में सर्वप्रथम भगवान विष्णु क्षीरसागर में जब शेष-शैया पर प्रकट हुए तो उनके नाभि-कमल से ब्रह्मा दृष्टिगोचर हुए। ब्रह्मा के पुत्र धर्म तथा धर्म से पुत्र वास्तुदेव उत्पन्न हुए। उन्हीं वास्तुदेव की अंगिरसी नामक पत्नी से विश्वकर्मा का जन्म हुआ। पिता की ही भाँति पुत्र विश्वकर्मा वास्तुकला के अद्वितीय आचार्य , प्रथम ‘इंजीनियर’ (आदिअभियन्ता) आदि विशेषणों से विभूषित हैं।
धर्मशास्त्रों में विश्वकर्मा के पाँच स्वरूपों या अवतारों का भी वर्णन मिलता है, जैसे, पहला- विराट विश्वकर्मा ,इन्हें सृष्टि को रूप- आकार देने वाला कहा गया है| दूसरा- धर्मवंशी विश्वकर्मा , जो महान शिल्पज्ञ, विज्ञान – विधाता प्रभात के पुत्र हैं| तीसरे- अंगिरावंशी विश्वकर्मा, विज्ञान -व्याख्याता वसु के पुत्रA चौथे- सुधन्वा विश्वकर्मा , महान शिल्पाचार्य ऋषि अथवी के पुत्र के रूप में और पाँचवे -भृगुवंशी विश्वकर्मा, उत्कृष्ट शिल्प विज्ञानी शुक्राचार्य के पौत्र के रूप में उल्लिखित है।
भगवान विश्वकर्मा अनेक रूपों यथा- दो बाहु, चार बाहु, दस बाहु वाले तथा एक मुख , चार मुख तथा पंचमुख में महिमामंडित हैं| उनके पाँच पुत्र क्रमश: मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी और दैवज्ञ थे। ये समस्त पुत्र शिल्पशास्त्र में निष्णात् थे। मनु विश्वकर्मा सानग गोत्रीय हैं। ये लौह-कर्म/कार्य के अधिष्ठाता थे, तो सनातन ऋषि मय मूलत: सनातन गोत्र के दूसरे पुत्र थे जो कुशल काष्ठकार (बढ़ई ) थे।
अहभन गोत्रीय ऋषि त्वष्टा के वंशज काँसा व ताँबा धातु के अविष्कारक तीसरे पुत्र थे। चौथे पुत्र प्रयत्न ऋषि शिल्पी हैं जो प्रयत्न गोत्र से सम्बन्धित हैं इनके वंशज संगततराश (मूर्तिकार) हैं। दैवज्ञ ऋषि , जो सुवर्ण गोत्रीय थे। इनके वंशज सोने-चाँदी का काम करने वाले स्वर्णकार कहलाए।
वैदिक देवता विश्वकर्मा ही जगत् के सूत्रधार कहलाते हैं – दैवौ सौ सूत्रधार:जगदखिल हित ध्यायते सर्व सत्वै।
विश्वकर्माप्रकाश , जिसे वास्तुतंत्र भी कहा जाता है , विश्वकर्मा के मतों का जीवंत ग्रंथ है| इसमें मानव एवं देववास्तु विद्या को गणित के कई सूत्रों के साथ बताया गया है।
मेवाड़ में लिखे गये अपराजितपृच्छा में अपराजित के प्रश्नों के विश्वकर्मा द्वारा दिये उत्तर लगभग साढे़ सात हजार श्लोकों का अनूठा संकलन है। दुर्भाग्यवश अब मात्र 239 सूत्र ही उपलब्ध हैं। इस ग्रंथ से यह भी पता चलता है कि विश्वकर्मा के तीन अन्य पुत्र क्रमश: जय , विजय और सिद्धार्थ भी थे, जो उच्चकोटि के वास्तुविद् थे।
मान्यता है कि भाद्रपक्ष की अंतिम तिथि को विश्वकर्मा पूजा नितांत शुभ माना जाता है। ऐसे में सूर्य के परागमन के अनुसार ही विश्वकर्मा पूजा का मुहूर्त तय किया जाता रहा है। यह अद्भुत संयोग है कि प्रत्येक वर्ष यह विश्वकर्मा पूजा 17 सितम्बर को मनाया जाता है। कभी – कभी एक दिन का अंतर आया है।
भगवान विश्वकर्मा की पूजा
उत्तर प्रदेश, दिल्ली, असम, उड़िसा, झारखंड, उत्तराखंड, बिहार, पं. बंगाल, कर्नाटक आदि राज्यों में मूर्ति स्थापित करके विधि-विधान से करने की परंपरा है। इस दिन सभी बुनकर, शिल्पकार, कल-कारखानों, औद्योगिक घरानों में विधिवत् पूजा होती है। सभी प्रकार के औजारों को एक साथ रखकर पूजन के उपरांत सुख-समृद्धि की कामना की जाती है।
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लेखक संतोष कुमार तिवारी हिन्दू धर्म एवं भारतीय दर्शन के अध्येता हैं। रामनगर, नैनीताल में रहते हैं।
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