ऐतिहासिक प्रमाणों पर आधारित मदन मोहन सती का नवीनतम उपन्यास ‘लखनपुर के कत्यूर’

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सी एम पपनैं
नई दिल्ली (महानाद) : मध्य हिमालय, उत्तराखंड के ग्रामीण लोकजीवन में लोककथाएंे पारंपरिक तौर पर अहम स्थान रखती हैं। कुमांऊ अंचल के गेवाड़ क्षेत्र में अनेकों गांवों में बुजुर्गों द्वारा, नौनिहालों को कत्युरी राजवंश के राजाआंे की ऐतिहासिक कहानियां सुनाई जाती रही हैं। अल्मोड़ा जिले के ग्राम उगलिया के मूल निवासी, लेखक व वरिष्ठ पत्रकार मदन मोहन सती ने भी बाल्यकाल में अपने बुजुर्गों से कत्युरी राजवंश के राजाओं की गाथाऐं सुनी थीं। उक्त गाथाओं से प्रेरणा लेकर, उन्हें स्मृति पटल पर संजो कर, उन्होंने देश के कई बड़े इलैक्ट्रोनिक मीडिया ग्रुपों से करीब दो दशक तक जुड़े रहने के बाद, उत्तराखंड की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर, कई प्रकाशित पुस्तकों के प्रकाशन के बाद, उत्तराखंड मे व्याप्त ऐतिहासिक लोक कथाओं, लोक कहानियों, ऐतिहासिक ग्रंथो और देव आत्माओं की रोचक कथाओं को मुख्य आधार बना, शोध कार्य कर, कत्युरी राजवंश बैराठ-लखनपुर के अन्तिम शासकों की अमर गाथा पर आधारित उपन्यास ‘लखनपुर के कत्यूर’ की रचना की है। प्रकाशित उपन्यास में लोकगाथाओं के आंचलिक स्वरूप और ऐतिहासिक तथ्यों को लेखक द्वारा, बड़े ही गूढ़ रूप से पिरोया गया है, जो पाठकांे के पठन-पाठन व ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में महत्वपूर्ण साबित हो सकता है।

विगत माह 4 अगस्त को महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी द्वारा, राजभवन में, उक्त पुस्तक का लोकार्पण, एक सादे समारोह में किया गया। पुस्तक का प्रकाशन, ‘तक्षशिला प्रकाशन’, नई दिल्ली द्वारा किया गया है।

प्रकाशित पुस्तक में जिस कत्युरी राजवंश की लोक प्रचलित अमर गाथा का वर्णन किया गया है, उक्त राजवंश भारत के मध्य हिमालय, उत्तराखंड कुमाऊं अंचल के, एक मध्ययुगीन ऐतिहासिक शक्तिशाली राजवंश के इतिहास को बयां करता नजर आता है। ऐतिहासिक प्रमाणों के मुताबिक, छठवीं से ग्यारहवीं सदी के कालखंड में, कत्युरी राजवंश का शासन रहा था। राजवंश के राजा गिरीराज चक्रचुड़ामणि की उपाधि धारण किए रहते थे। कुछ इतिहासकारों के मुताबिक, कत्युरी राजाओं को शक वंशावली, तो कई अन्य के कथनानुसार, अयोध्या के शालिवाहन शासक घराने का वंशज माना जाता है। कत्युरी वंश के संस्थापक राजा बसंत देव व अंतिम शासक भावदेव को माना जाता है। ऐतिहासिक संदर्भाे के मुताबिक, भावदेव कमजोर व अत्याचारी शासक साबित हुआ था। जिसके कुकृत्यो के परिणाम स्वरूप, कुमाऊं अंचल में, चंदो का शासन प्रारंभ हो गया था।

उत्तराखंड के मंदिरों जागेश्वर, बागेश्वर, बैजनाथ, बद्रीनाथ, पांडुकेश्वर इत्यादि से संस्कृत भाषा मंे प्राप्त, ताम्रपत्रों व शिलालेखों से, शिव उपासक, हिमालय के चक्रवर्ती कत्युरी वंश के राजाओं के संवत चौथे, पांचवें व संवत बाइसवें तक के राजाओं के नाम ज्ञात होते हैं।

लेखक मदन मोहन सती द्वारा, 288 पृष्ठों के प्रकाशित उपन्यास का श्रीगणेश, कत्युरी बलशाली राजा प्रीतम देव व धर्मादेवी के बीच घने जंगल मे शिकार खेलने के दौरान, खूंखार जंगली जानवरों से जान बचाने वाले वीरता के पराकाष्ठा भरे प्रसंग, प्रेम प्रसंग व दोनों के विवाह के कौतुहल भरे प्रसंग को, प्रभावशाली साहित्यिक भावों में रच कर, पाठकों को उपन्यास के शुरुआती रोचक ऐतिहासिक तथ्यों से रूबरू कराने का सफल प्रयास किया है, यह क्रम उपन्यास के अंत तक बना रहा है। बाद के कथानक में प्रीतमदेव व धर्मादेवी की चारधाम यात्रा। प्रीतम देव द्वारा रमोली कोट के वीर भड़ गंगू रमोला से मंदिर बनाने की इजाजत न देने पर उसे युद्ध मे परास्त कर बारह वर्ष तक सीमांत भोट मे निर्वासित करने व बाद के दिनों में उसका राजपाट लौटाने का वर्णन कर, प्रीतम देव की वीरता व उदारता दोनों का एक साथ बखान। प्रीतम देव और रानी जिया के पुत्र धामदेव की युद्ध रणनीति व वीरता का सजीव वर्णन, रचित पुस्तक की विशेषता लिए हुए है।

प्रकाशित उपन्यास ‘लखनपुर के कत्यूर’ के माध्यम से लेखक द्वारा, राजुला-मालूशाही, रानी जिया, राजा धामदेव, विरमदेव तथा पृथ्वीपाल और उनकी पत्नी धर्मा देवी की प्रेम कहानी जो मौखिक रूप मे अंचल के जनमानस के मध्य, कहानियों व गाथाओं के रूप मे, पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती रही है, लेखक द्वारा, प्रकाशित उपन्यास के माध्यम से, ऐतिहासिक तथ्यों को पाठकों व शोधकर्ताओं को उपलब्ध कराने का प्रेरक कार्य कर उपन्यास की महत्ता को बढ़ाया है।

लेखक द्वारा, कत्युरी राजाओं में लखनपुर और रणचुली हाट के राजा प्रीतम देव को अत्यधिक शक्तिशाली बताया गया है। प्रकाशित उपन्यास से अवगत होता है, भाट और चारण द्वारा उनका यशगान बढ़ चढ़ कर किया जाता था। जागर रूप में, कत्युरों का यशगान अंचल के गांवो में वर्तमान में भी किया जाता है। प्रीतमदेव की पत्नी मौलादेवी, जिसे जिया रानी नाम से जाना गया, रानीबाग के मैदान में फिरोजशाह तुगलक के हमले को नाकाम करने के बाद, रानी की वीरता व युद्ध कौशल की रणनीति को लेखक द्वारा विस्तार से बयां किया गया है।

कुशल राजनीतिज्ञ और प्रजाप्रिय, बैराठ राजमाता धर्मादेवी व राजा मालूशाही के निधन तथा लखनपुर कोट व बैराठ मे राजा सुखदेव के पुत्र विरमदेव के पौत्र राजा भावदेव के गद्दी संभालने के बाद, कत्युरो और चंदो के बीच बढ़ती कटुता। राजा ज्ञानचंद द्वारा तराई पर कब्जे के लिए अपने सेनापति नीलू कठायत की वीरता के बल, तराई पर चंद शासन स्थापित करने। बैराठ लखनपुर में चंद राजा, ज्ञानचंद, विक्रमचंद और कीर्तिचंद के युद्ध का वर्णन तथा लखनपुर कोट से कत्युरों की विदाई तथा चंद सेना का पाली पछाऊ पहंुचने पर, कत्युरी राजा भावदेव द्वारा अपने को मुकाबले मे असमर्थ पाकर, लखनपुर किला खाली कर देने के बाद, एक जमींदार के रूप में मानिला और पाली मे कार्य प्रारंभ करने का वर्णन, लेखक द्वारा, प्रकाशित उपन्यास में स-विस्तार किया गया है।

तत्कालीन कत्युरी राजाओं के सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक चांदपुर गढ़ की बनावट तथा राजाओं के रहन-सहन व सुरक्षा की रणनीति से भी उपन्यास में रूबरू कराया गया है। प्रकाशित उपन्यास से अवगत होता है कि कत्युरी वंश के राजाओं को अलग-अलग इलाकों में भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता था। ज्यादातर पात्र अलग-अलग इलाकों में जनमानस के मध्य, वर्तमान मे भी जागर रूप मे पूजित हैं। आज भी बैराठ के ग्रामीण इलाको में जागर का आयोजन कर पूजित राजाओं की गाथाआंे का बखान, जगरियों द्वारा, महिमामंडन कर किया जाता है। प्रमाण स्वरूप, कुमांऊ अंचल के चौखुटिया के नजदीक ही बैराठ के सेरे आज भी दृष्टिगत हैं जिनके ऊपरी भाग मे स्थित पहाड़ी पर लखनपुर किला स्थित था जिसके खंडहर अवशेष रूप मे आज भी दृष्टिगत हैं।

लेखक ने उपन्यास के माध्यम से अवगत कराया है, आज जो जागर और भड़ों उपलब्ध हैं वह अपने मूल स्वरूप में नहीं बचा है। कत्युरी वंश का ज्यादातर मौखिक इतिहास है, जो जगरियो की जानकारी तक ही सीमित है। जो कुछ शेष बचा है, वह धरोहर स्वरूप है। प्रकाशित उपन्यास में लोकगाथाओं के आंचलिक स्वरूप और ऐतिहासिक तथ्यों को बडे ही सजीव रूप मे पिरोया गया है। यह सब लेखक की सधी हुई सोच व कलम का चमत्कार कहा जा सकता है।

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