दशकों तक याद रखा जायेगा भारत में आयोजित जी-20 सम्मेलन

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नई दिल्ली (महानाद) : भारत में आयोजित जी-20 सम्मेलन (G-20 Summit) को दशकों तक याद रखा जाएगा। यदि नई दिल्ली घोषणापत्र देखें तो जी-20 के सभी सदस्य देशों ने भारत के विचारों को ना सिर्फ सराहा बल्कि जगह भी दी। शायद ही ऐसा कोई नेता रहा हो जिसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विचारों, यूं कहें कि भारत के नजरिए से अलग रहा हो। देश और चेहरे भले ही अलग-अलग नजर आए लेकिन भारत की जमीन पर अलग-अलग विचार मिलकर एक साझा आवाज बन गए।100 से अधिक मुद्दो पर आम सहमति बनी वो भी उस समय जब अमेरिका-चीन के बीच तनाव चरम पर है तो वहीं रूस-यूक्रेन एक दूसरे से उलझे हुए हैं।

यदि आप जी-20 सम्मेलन पर नजर डालें तो खास बात यह थी कि घोषणापत्र सम्मेलन के पहले दिन ही सबके सामने था। आमतौर पर साझा बयान या घोषणापत्र सम्मेलन के आखिरी दिन जारी किये जाते हैं। अब सवाल यह है कि आखिर यह सब कैसे संभव हुआ। जानकार बताते हैं कि सम्मेलन से पहले वाली रात भारत ने जिस तरह से सदस्य देशों के साथ आपसी बातचीत में कूटनीति का सफल प्रयोग किया उसे आप घोषणापत्र में देख सकते हैं। सदस्य देशों में चीन, यूक्रेन-रूस के मुद्दे पर असहमति के कई बिंदु थे, खासतौर से यूक्रेन के मुद्दे पर चीन के रुख में बड़ा बदलाव आया जब वो बातचीत के लिए तैयार हुआ। उससे पहले वह रूस के रुख को ज्यादा महत्व दे रहा था। अब जब चीन का नजरिया बदला तो रूस के लिए अकेले प्रतिवाद करना संभव नहीं रहा। रूस को संकेत दिया कि एकतरफा कोई बात नहीं की जाएगी, अगर सदस्य देश लचीला रुख अपनाएंगे तो उसका रुख भी लचीला बना रहेगा।

चीन और रूस के बाद अमेरिकी देशों को समझाने की कोशिश की गई। इन देशों से भारत ने अपील करते हुए कहा कि यूक्रेन के साथ विवाद वाले विषय पर रूस के खिलाफ एकतरफा नजरिया रखना सही नहीं होगा। भारत की तरफ से कई मसौदों को पश्चिमी देशों के सामने रखा गया। उन मसौदों को देखने के बाद पश्चिमी देशों के नजरिए में बदलाव आया उन्होंने अपनी जिद छोड़ दी। इन सबके बीच विदेश मंत्री डॉ. एस जयशकंर ने रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव से मुलाकात की और रूस का रुख बदला। इसके अलावा प्रधानमंत्री मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन की मुलाकात के बाद अमेरिका के रुख में भी नरमी आई जिसका असर घोषणापत्र में नजर आता है। जब यूक्रेन युद्ध का जिक्र तो किया गया लेकिन रूस का नाम नहीं लिया गया।

वहीं, इस सबके बीच सऊदी अरब की अपनी चिंता थी। फॉसिल फ्यूल के मुद्दे पर अमेरिकी और यूरोपीय देशों के रुख से सऊदी अरब को पहले से ऐतराज है। सऊदी अरब का मानना है कि अगर कोई फैसला जल्दबाजी में लिया गया तो उसका असर उसके हितों पर पड़ेगा। यहीं नहीं भारत जैसे दूसरे विकासशील देशों को भी अमेरिका और पश्चिमी देशों के नजरिए से ऐतराज रहा है। लिहाजा इस विषय पर किसी निश्चत राय का बनना जरूरी है। भारत ने कहा कि ऊर्जा संकट और ऊर्जा दोनों विषय दुनिया के सभी मुल्कों के लिए महत्वपूर्ण हैं, विवाद के मुद्दों को वैश्विक हित के नजरिए से देखने और समझने की जरूरत है।

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