महाराष्ट्र के 55 वं निरंकारी संत समागम का हर्षाेल्लास के साथ हुआ शुभारम्भ

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विकास अग्रवाल
काशीपुर (महानाद) : संतों के हृदय में सदैव ही सर्वत्र का भला करने का भाव रहता है एवं उनका परम धर्म मानवता की सेवा करना ही होता है। उक्त उद्गार सद्गुरु माता सुदीक्षा महाराज ने 11 फरवरी को महाराष्ट्र के तीन दिवसीय 55 वें वार्षिक निरंकारी संत समागम का विधिवत शुभारंभ करते हुए मानवता के नाम प्रेषित अपने संदेश में व्यक्त किए।

चेंबूर स्थित संत निरंकारी सत्संग भवन से इस संत समागम का सीधा प्रसारण किया जा रहा है, जिसका आनंद घर बैठे हुए लाखों निरंकारी श्रद्धालु भक्तों एवं प्रभु प्रेमी जनों द्वारा मिशन की वेबसाइट एवं साधना टीवी चैनल के माध्यम से लिया जा रहा है।

सतगुरु माता सुदीक्षा महाराज ने अपने भाव व्यक्त करते हुए कहा कि सभी के प्रति प्रेम, दया, करुणा, सहनशीलता का भाव मन में अपनाएं जिससे कि इस संसार को स्वर्गमय बनाया जा सके ।

सतगुरु माता ने आगे कहा कि हमें अच्छे गुणों का आरंभ स्वयं से करते हुए इसे अपने घर परिवार, मौहल्ले, शहर, देश एवं समस्त विश्व के लिए करना चाहिए। जिससे कि इस संसार को वास्तविक रूप में दिव्य गुणों एवं कर्मों द्वारा महकाया जा सके। निरंकारी मिशन में सदैव ही सेवा को परम धर्म माना है। अतः इसी सेवा भाव को अपनाकर मानवता के कल्याण के लिए सेवाएं निभानी है।

समागम के प्रथम दिन के सत्संग समारोह के समापन पर विश्व भर के श्रद्धालु भक्तों को अपना आशीर्वाद प्रदान करते हुए सतगुरु माता ने कहा कि विश्वास जब तक मन में ना हो तब तक भक्ति संभव नहीं। अतः हमें क्षणभंगुर रहने वाली वस्तुओं पर विश्वास ना करके वास्तविक रूप में स्थाई रहने वाले इस निरंकार पर विश्वास करना चाहिए। जिसका अस्तित्व शाश्वत एवं अनंत है। इसके अतिरिक्त एक अन्य उदाहरण देते हुए सतगुरु माता ने भक्ति एवं विश्वास के विषय में बताया कि जब हम परमात्मा से जुड़ जाते हैं तब हर हाल में शुकराने का भाव ही प्रकट करते हैं। प्रार्थना एवं अरदास हमारी भक्ति को और परिपक्व बनाती है फिर जीवन के उतार चढ़ाव, प्रार्थना एवं अरदास हमारी भक्ति को और परिपक्व बनाती है। फिर जीवन के उतार-चढ़ाव हमारे मन को प्रभावित नहीं करते।

विश्वास को और दृढ़ता देते हुए सतगुरु माता ने बताया कि हम कई बार ऐसी चालाकियां कर देते हैं जिससे हमारा कार्य उस समय तो सराहनीय हो जाता है। परंतु कहीं ना कहीं इस चाल से हम दूसरे के हृदय को आघात पहुंचा देते हैं। हमें ऐसा नहीं करना जिससे कि किसी अन्य का विश्वास ही डगमगा जाए। हमें परमात्मा पर स्वयं का विश्वास तो धारण करना ही है, साथ ही साथ दूसरों को भी दृढ़ता प्रदान करनी है। सतगुरु माता ने एक उदाहरण द्वारा समझाया कि जहां विश्वास है वहां प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। जैसे कि एक बच्चे को अपनी मां के हाथ के खाने के स्वाद पर इतना विश्वास होता है कि वह अपने मित्रों को बगैर उस भोजन का स्वाद लिए ही दावे से कह देता है कि मेरी मां के हाथ का खाना बहुत ही स्वादिष्ट होगा। कहने का भाव केवल यही है कि विश्वास जीवन में दृढ़ता प्रदान करता है। परमात्मा के प्रति हम पूर्ण रुप से समर्पित हो जाते हैं। तब हृदय में भक्ति का भाव स्वयं ही प्रकट हो जाता है। हमारा भी विश्वास इस निरंकार पर ऐसा ही होना चाहिए।

हमें इस निरंकार प्रभु की रजा में बगैर शब्दों के समर्पण करना है। इस बात को स्पष्ट करते हुए माताजी ने फरमाया कि एक गुरु को उनके शिष्य ने एक उपहार दिया जिसे गुरु ने बहती हुई नदी में प्रवाहित कर दिया। गुरु ने उसे शिक्षा देने के उद्देश्य से समझाया कि यदि तुमने मुझे कुछ दे दिया तो तुम उसे मुझ पर छोड़ दो कि मैं उसका कैसा प्रयोग करता हूं? इस उदाहरण द्वारा यही शिक्षा मिलती है कि यदि हम कुछ अर्पण करते हैं तो उसके उपरांत कुछ भी पानी की अपेक्षा ना हो और यह अवस्था हमारे जीवन में तभी आती है जब हम अंदर एवं बाहर में एक समान हो जाते हैं।

इस वर्चुअल रूप में आयोजित संत समागम में सभी प्रतिभागियों ने अपने शुभ भाव, गीतोें, कविताओं एवं विचारों द्वारा प्रकट किए जो अनेकता में एकता का सुंदर चित्रण प्रस्तुत कर रहे थे।

उल्लेखनीय है कि संत समागम के अवसर पर सतगुरु माता सुदीक्षा महाराज के कर कमलों द्वारा विश्वास, भक्ति, आनंद समागम स्मारिका का विमोचन भी किया गया। जिसमें मराठी हिंदी गुजराती एवं नेपाली भाषाओं में अनुभवी संतो के सारगर्भित लेख सम्मिलित हैं।

यह जानकारी काशीपुर के निरंकारी मीडिया प्रभारी प्रकाश कुमार द्वारा दी गई।

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